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मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर, Mirza Ghalib Famous Shayari Collection

मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर, Mirza Ghalib Famous Shayari Collection

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तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था


ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो


कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता


इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं


अपनी गली में मुझ को
न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को
क्यूँ तेरा घर मिले


आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक


Mirza Ghalib Shayari

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पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था


अब अगले मौसमों में यही काम आएगा,
कुछ रोज़ दर्द ओढ़ के सिरहाने रख लिया !!


वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी,
उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया !!


अफ़साना आधा छोड़ के सिरहाने रख लिया,
ख़्वाहिश का वर्क़ मोड़ के सिरहाने रख लिया !!


तमीज़-ए-ज़िश्ती-ओ-नेकी में लाख बातें हैं,
ब-अक्स-ए-आइना यक-फ़र्द-ए-सादा रखते हैं !!


हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो


हो उसका ज़िक्र तो बारिश सी दिल में होती है
वो याद आये तो आती है दफ’तन ख़ुशबू


इक शौक़ बड़ाई का अगर हद से गुज़र जाए
फिर ‘मैं’ के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता


Mirza Ghalib Shayari

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दिल गंवारा नहीं करता शिकस्ते-उम्मीद,
हर तगाफुल पे नवाजिश का गुमां होता है।


मैं चमन में क्या गया गोया दबिस्ताँ खुल गया,
बुलबुलें सुन कर मिरे नाले ग़ज़ल-ख़्वाँ हो गईं !!


हम जो सबका दिल रखते हैं
सुनो, हम भी एक दिल रखते हैं


‏शहरे वफा में धूप का साथी नहीं कोई
सूरज सरों पर आया तो साये भी घट गए


फिर आबलों के ज़ख़्म चलो ताज़ा ही कर लें,
कोई रहने ना पाए बाब जुदा रूदाद-ए-सफ़र से !!


एजाज़ तेरे इश्क़ का ये नही तो और क्या है,
उड़ने का ख़्वाब देख लिया इक टूटे हुए पर से !!


साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई


मैं तो इस सादगी-ए-हुस्न पे सदक़े,
न जफ़ा आती है जिसको न वफ़ा आती है !!


कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता !!


गुज़र रहा हूँ यहाँ से भी गुज़र जाउँगा,
मैं वक़्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा !!


गुज़रे हुए लम्हों को मैं इक बार तो जी लूँ,
कुछ ख्वाब तेरी याद दिलाने के लिए हैं !!


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हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक


फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना ए फरियाद आया
दम लिया था ना कयामत ने हनोज़
फिर तेरा वक्ते सफ़र याद आया


इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
ग़ालिब


‘ग़ालिब’ वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं
ग़ालिब


जाँ दर-हवा-ए-यक-निगाह-ए-गर्म है ‘असद’
परवाना है वकील तिरे दाद-ख़्वाह का
ग़ालिब


न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही


ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका
गर इक अदा हो तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ
ग़ालिब


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हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था


फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ !!


इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं,
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर !!


‏मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं,
हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं !!


चाहें ख़ाक में मिला भी दे किसी याद सा भुला भी दे,
महकेंगे हसरतों के नक़्श* हो हो कर पाएमाल^ भी !!


अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा


जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन,
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए !!


फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार,
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे !!


क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में !!


है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं
वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था


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उनके देखने से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।


आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद


कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद


शम्आ बुझती है तो उस में से धुआं उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद


हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद


रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था


यूसुफ़ उसको कहूं और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था


Mirza Ghalib Shayari

बिजली इक कूंद गई आंखों के आगे तो क्या
बात करते के मैं लब तिश्ना-ए-तक़रीर भी था


क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ इक रंज गरां बारी-ए-ज़ंजीर भी था


तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था


ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।
Ye Na Thi Humari Kismat Ki Visaal-e-Yaar Hota,
Agar Aur Jeete Rehte, Yehi Intezaar Hota.


आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक।
Aashiqi Sabr Talab Aur Tamanna Betab,
Dil Ka Kya Rang Karoon Khoon-e-Jigar Hone Tak.


इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।
Ishrat-e-Qatra Hai Dariya Mein Fanaa Ho Jana,
Dard Ka Hadd Se Gujarna Hai Dawa Ho Jana.


इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया,
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया।
Ishq Se Tabiyat Ne Zeest Ka Mazaa Paya,
Dard Ki Dawa Payi Dard Be Dawa Paya.


तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें,
मौत कुछ तुम तो नहीं है कि बुला भी न सकूं।
Tum Na Aaoge To Marne Ki Hai Sau Tadbeerein,
Maut Kuchh Tum To Nahi Hai Ki Bula Bhi Na Saku.


आईना देख के अपना सा मुँह लेके रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था।
Aaina Dekh Apna Sa Moonh Le Ke Reh Gaye,
Sahab Ko Dil Na Dene Pe Kitna Guroor Tha.


आया है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब,
किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद।
Aaya Hai BeKasi-e-Ishq Pe Rona Ghalib,
Kiske Ghar Jayega Sailab-e-Bala Mere Baad.


इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।
Ishq Par Jor Nahi Hai Ye Wo Aatish Galib,
Ki Lagaye Na Lage Aur Bujhaye Na Bujhe.


चाँदनी रात के खामोश सितारों की कसम,
दिल में अब तेरे सिवा कोई भी आबाद नहीं।
Chaandni Raat Ke Khamosh Sitaron Ki Kasam,
Dil Mein Ab Tere Siwa Koyi Bhi Aabaad Nahi.


आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद,
मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न माँग।
Aata Hai Daag-e-Hasrat-e-Dil Ka Shumaar Yaad,
Mujhse Mere Gunaah Ka Hisaab Ai Khudaa Na Maang.


ता फिर न इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख्वाब में।
Ta Fir Na Intezaar Mein Neend Aaye Umr Bhar,
Aane Ka Ahed Kar Gaye Aaye Jo Khwaab Mein.


ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे?
Ghalib Bura Na Maan Jo Waaiz Bura Kahe,
Aisa Bhi Koi Hai Ke Sab Achha Kahein Jisse?


ज़िन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री,
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।
Zindagi Apni Jab Iss Shakl Se Gujri,
Hum Bhi Kya Yaad Karenge Ki Khuda Rakhte The.


हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और।
Hain Aur Bhi Duniya Mein SukhanWar Bahut Achchhe,
Kehte Hain Ki Ghalib Ka Hai Andaaz-e-Bayaan Aur.


आए है बेकसीए इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किसके घर जाएगा सेलाब-ए-बला मेरे बाद


कौन होता है हरीफ-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
है मुकरर्र लब-ए-साक़ी से सला मेरे बाद


शम्आ बुझती है तो उस में से धुआं उठता है
शोला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बाद


हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद

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रेख़ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था


पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था


हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था


यूसुफ़ उसको कहूं और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था


बिजली इक कूंद गई आंखों के आगे तो क्या
बात करते के मैं लब तिश्ना-ए-तक़रीर भी था


क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ इक रंज गरां बारी-ए-ज़ंजीर भी था


तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था


तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था


हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था


उनके देखने से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।


ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक।


इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।


इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया,
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया।


तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें,
मौत कुछ तुम तो नहीं है कि बुला भी न सकूं।


आईना देख के अपना सा मुँह लेके रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था।


आया है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब,
किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद।


इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।


चाँदनी रात के खामोश सितारों की कसम,
दिल में अब तेरे सिवा कोई भी आबाद नहीं।


आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद,
मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न माँग।


ता फिर न इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख्वाब में।


दिल गंवारा नहीं करता शिकस्ते-उम्मीद,
हर तगाफुल पे नवाजिश का गुमां होता है।


ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे?


ज़िन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री,
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।


हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और।


‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइ’ज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे …


रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!


जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए-यार है,
आँखों को रख के ताक़ पे देखा करे कोई !!


कुछ लम्हे हमने ख़र्च किए थे मिले नही,
सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया !!


Mirza Ghalib Shayari

भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी,
बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया !!


इक क़ैद है आज़ादी-ए-अफ़्कार भी गोया,
इक दाम जो उड़ने से रिहाई नहीं देता


इक आह-ए-ख़ता गिर्या-ब-लब सुब्ह-ए-अज़ल से,
इक दर है जो तौबा को रसाई नहीं देता

इक क़ुर्ब जो क़ुर्बत को रसाई नहीं देता,
इक फ़ासला अहसास-ए-जुदाई नहीं देता


आज फिर पहली मुलाक़ात से आग़ाज़ करूँ,
आज फिर दूर से ही देख के आऊँ उस को !!


वो जो काँटों का राज़दार नहीं,
फ़स्ल-ए-गुल का भी पास-दार नहीं !!


तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता !!


अच्छा है सर-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर,
दिल में नज़र आती तो है इक बूँद लहू की !!


‘ग़ालिब’ नदीम-ए-दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त
मश्ग़ूल-ए-हक़ हूँ बंदगी-ए-बू-तराब में


दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
ग़ालिब

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
ग़ालिब


आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
ग़ालिब


हो चुकीं ‘ग़ालिब’ बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है
ग़ालिब


देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं
-ग़ालिब


मगर लिखवाए कोई उस को खत
तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और
घरसे कान पर रख कर कलम निकले..
-मिर्ज़ा ग़ालिब

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