कभी कभी मैं ही निकल जाता हूँ खुद में से , खुद को अकेला चीख़ता हुआ छोड़कर ।
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बैठा ना सके दो पल भी हमें अपने क़रीब हमारी मुफ़लिसियो में…. वो जो हमेशा हमें ‘ अपने ‘ होने का दावा किया करते थे …..
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कुछ कहना चाहो तो अलफ़ाज़ ना मिलें.. आशिकों के साथ अक्सर ये इत्तेफ़ाक़ होता है..
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तुमने होठों में समुन्दर क्या समेटा, सारा शहर पानी का प्यासा हो गया.
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कभी अधूरा सा कुछ कहूँ, तो तुम पूरा समझ जाना, हम तो उलझे हैं तुमसे, तू कहीं हममें ना उलझ जाना.
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इतनी दुनियादारी रख, चलने की तैयारी रख, काँधे के लिए काम आएँगे चन्द लोगों से यारी रख..!
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मुस्कुरा उठा वो मेरा नाम सुनकर.. इतनी दूर गया था रिश्ता हमारा..!!
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मोहबत क्या करेंगे वोह जो दुनिया भर से डरते है, हम तो वह परवाने है जो मो्हबत करके जलते है|
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लोग रह गए इतराते अपनी चालाकियों पर वो समझ ही न पाये कि वो क्या गँवा बैठे हैं.
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सुनो…!! रेशमी पर्दों से घर तो सजा लिया है मैनै…..! मगर…….!! चाबियाँ कहती है मुझको वो ही कमर चाहिए……!!
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हँसते रहो, इसीलिए नहीं कि आपके पास हंसने का कारण है.. इसलिए क्योंकि..दुनिया को रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता आपके आंसुओं से..!!
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अब तो मिलावट का ज़माना है साहब.. आप कभी तो हमारी हां में हां मिला लिया करो..
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ज़िन्दगी को सँवार दे मौला दिल में उनको उतार दे मौला उनके जलवों को देखने के लिए मुझको आँखें हज़ार दे मौला
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